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राजस्थान में सत्ता को लेकर लड़ाई जितनी बीजेपी और कांग्रेस के बीच नहीं हुई उससे ज़्यादा कांग्रेस के अंदरखाने ही हुई.आपके मन में ये सवाल जरूर आता होगा कि, आखिर कार गहलोत और पायलट में बनती क्यूं नहीं है.आज हम इसके ही इतिहास पर नजह डालेंगे. इन चार सालों में ऐसे कई मौक़े आए, जिससे लगा कि, अब गहलोत सरकार का जाना तय है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. अशोक गहलोत का जितना विरोध बीजेपी और उनके नेताओं ने नहीं किया, जितना उनके ही डिप्टी रहे सचिन पायलट ने किया और अब सचिन पायलट खुल कर अपनी ही पार्टी के मुख्यमंत्री और उनकी सरकार का विरोध कर रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं है कि राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच पहली बार तलवारें खिंची हों. इससे पहले भी दोनों के बीच मनमुटाव रहे हैं और दोनों नेता एक-दूसरे के ख़िलाफ़ सार्वजनिक मंचों से भी बोलते रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि इन दोनों नेताओं के बीच यह दुश्मनी नई हो. इससे पहले भी सचिन पायलट के पिता पूर्व केंद्रीय मंत्री राजेश पायलट भी अशोक गहलोत के बीच रिश्ते भी करेले की तरह कड़वे ही रहे हैं. इस दोनों के बीच की दुश्मनी शुरू होती है सन 1980 के दौरान. जब लोकसभा चुनावों में जहां अशोक गहलोत जोधपुर से चुनाव लड़कर दिल्ली पहुंचते हैं. तो वहीं राजेश पायलट भी भरतपुर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचते हैं. दोनों ही नेता कांग्रेस आलाकमान के नज़दीक होते हैं. लेकिन 1990 के दशक में राजीव गांधी के निधन के बाद राजेश पायलट की पकड़ कांग्रेस पर कुछ कम हो जाती है. साल 1994 में केंद्र में कांग्रेस की सरकार होती है और प्रधानमंत्री होते हैं पीवी नरसिम्हा राव. उस समय प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव से अशोक गहलोत की नज़दीकी बढ़ जाती है. और वे राजेश पायलट को नज़रंदाज़ करके गहलोत को राजस्थान कांग्रेस का अध्यक्ष बना देते हैं. यह बात राजेश पायलट के दिल में घर कर जाती है. लेकिन पार्टी अनुशासन के कारण वह इस फ़ैसले को स्वीकार कर लेते हैं.
इसके बाद साल 1996 में जब कांग्रेस पार्टी में राष्ट्रीय अध्यक्ष के पद का चुनाव होता है तो गांधी परिवार सीताराम केशरी को अपना कैंडिडेट बनाकर उतारती है. वहीं राजेश पायलट भी अध्यक्ष पद की दावेदारी करते हैं. यह बात कहीं न कहीं गांधी परिवार को चुभती है लेकिन पार्टी इस फैसले को नजरंदाज करते हैं. इस दौरान अशोक गहलोत खुल कर राजेश पायलट की उम्मीदवारी का विरोध करते हैं और सीताराम केशरी चुनाव जीतकर अध्यक्ष बन जाते हैं. अशोक गहलोत का यह फैसला उन्हें गांधी परिवार के और भी नजदीक पहुंचा देता है और कभी राजीव गांधी के खास कहे जाने वाले राजेश पायलट को और भी दूर कर देता है. सीताराम केसरी का समर्थन करने के फैसले का फल अशोक गहलोत को सन 1998 में मिलता है. जब कांग्रेस राजस्थान में चुनाव जीतती है तो अशोक गहलोत को पहली बार मुख्यमंत्री बनाया जाता है. इस दौरान भी कांग्रेस आलाकमान राजेश पायलट को नजरंदाज करता है .
इसके बाद सन 2000 में जब सोनिया गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ती हैं तो उनके विरोध में जीतेन्द्र प्रसाद ने चुनाव लड़ने का फैसला किया. उनके समर्थन में राजेश पायलट खुलकर आ जाते हैं. लेकिन अशोक गहलोत उनके उलट सोनिया गांधी का समर्थन करते हैं और सोनिया गांधी यह चुनाव बड़े अंतराल से जीत जाती हैं. लेकिन इसके बाद राजेश पायलट का राजनैतिक जीवन हाशिये पर आ जाता है. इसी बीच 11 जून 2000 को राजेश पायलट एक सड़क दुर्घटना में अपनी जान गवां देते हैं. और गहलोत बनाम पायलट की लड़ाई कुछ समय तक के लिए रुक जाती है. सभी को लगता है कि, राजस्थान कांग्रेस के दो मजबूत स्तम्भों के बीच की लड़ाई अब शायद हमेशा के लिए शांत हो गई.
लेकिन किसी को नहीं मालूम था कि यह तो तूफान के आने से पहले की शांति भर थी. सन 2002 में राजेश पायलट के बेटे सचिन पायलट राजनीति में कदम रखते हैं और कांग्रेस पार्टी की सदस्यता लेते हैं. यह वह समय था जब कांग्रेस दोबारा से अपने पैरों पर खड़ी हो रही थी और पार्टी में राहुल गांधी का उदय हो रहा था. इस दौरान सचिन पायलट राहुल गांधी के नज़दीकी लोगों में शामिल हो जाते हैं. पार्टी उन्हें 2009 में अजमेर से लोकसभा का चुनाव लड़ाती है और वह जीतकर लोकसभा पहुंचते हैं. इसके बाद उन्हें साल 2012 मनमोहन सरकार में केन्द्रीय संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री बनाया जाता है. इधर अशोक गहलोत 2008 में राजस्थान के दूसरी बार मुख्यमंत्री बनते हैं. लेकिन 2013 में राजस्थान में कांग्रेस की बुरी हार होती है और पार्टी विधानसभा के कुल 200 सीट में से केवल 21 सीट ही जीत पाती है.
इसके बाद सचिन पायलट के राजस्थान कांग्रेस में अच्छे दिन आ जाते हैं. कांग्रेस हाईकमान अशोक गहलोत को दरकिनार करके सचिन पायलट को मौका देती है. सन 2018 में राजस्थान विधानसभा के चुनाव हुए तब पार्टी ने सचिन पायलट, जोकि प्रदेश कांग्रेस के मुखिया भी थे उन्हें खुली छूट देदी. सचिन पायलट ने वसुंधरा राजे की सरकार पर जमकर हमला बोला और पूरे प्रदेश में घूम-घूमकर कांग्रेस के पक्ष में माहौल बनाया. टिकट बटवारे में भी सचिन पायलट की खूब चली. इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस राजस्थान में भारी मतों से जीती और पहली बार 100 सीटों पे जीतने में कामयाब हुई. लेकिन जब मुख्यमंत्री बनाने की बात आई तो दिल्ली हाईकमान ने अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बना दिया और पायलट को डिप्टि सीएम पद पर ही संतोष करना पड़ा.
13 जुलाई 2020 को जब पूरा देश कोरोना के कारण ठंडा पड़ा हुआ था तभी राजस्थान कांग्रेस ने अचानक से तापमान बढ़ा दिया. सचिन पायलट अपने साथ करीबन डेढ़ दर्जन विधायक लेकर हरियाणा के मानेसर के एक होटल में पहुंच गए. इस घटनाक्रम में ऐसा प्रतीत हो रहा था कि अशोक गहलोत की सरकार गिर जाएगी, क्योंकि इससे कुछ महीनों पहले ही मध्य प्रदेश में भी कुछ ऐसा ही हुआ था. जहां एकतरफ़ सचिन पायलट कुछ विधायकों के साथ मानेसर में थे. वहीं अशोक गहलोत ने भी बाकि बचे हुए सभी विधायकों की बाड़ेबंदी शुरू कर दी. दोनों खेमे अपने अपने विधायकों को लेकर होटल में बंद थे. इसके साथ ही बीजेपी गहलोत सरकार पर हमलावर हुई और बहुमत साबित करने का दवाब बनाने लगी. इस बीच कांग्रेस हाईकमान ने तुरंत एक्शन लेते हुए सचिन पायलट को मिलने के लिए बुलाया. इस दौरान राजस्थान के नेताओं का दिल्ली में जमावड़ा शुरू हो गया. तमाम कोशिशों के बाद भी जब सचिन पायलट नहीं माने तो उनके साथ दो मंत्रियों को हाईकमान के आदेश के बाद बर्खास्त कर दिया गया. इसी बीच प्रियंका गाँधी वाड्रा ने दखल दिया और कुछ शर्तों के साथ सचिन पायलट को मना लिया गया. इससे राजस्थान पर आया सियासी संकट कुछ समय के लिए टल गया. लेकिन इसमें सचिन पायलट को अपना डिप्टी सीएम और कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष का पद गँवाना पड़ा.
इस लड़ाई को बंद करने की कोशिश आलाकमान ने की और पिछले साल हुए कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में सोनिया गाँधी ने अशोक गहलोत को उम्मीदवार बनाने की पेशकश की. लेकिन इससे राजस्थान में बवाल हो गया. गहलोत गुट के 90 विधायक ने अपना त्यागपत्र राजस्थान विधानसभा के अध्यक्ष सी पी जोशी को दे दिया. बाग़ी विधायकों ने मांग सामने रखी कि, अगर अशोक गहलत को मुख्यमंत्री पद से हटाया गया तो उनके ही गुट के किसी विधायक को मुख्यमंत्री बनाया जाये. सचिन पायलट का नेतृत्व उनको स्वीकार नहीं है. इस मामले को तूल पकड़ता देख कांग्रेस हाईकमान ने अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद पर बने रहने दिया. इसके बाद पायलट फिर थोड़ा शांत हुए. लेकिन एक बार फिर जब वो गहलोत के सामने आए तो पूरी तैयारी के साथ. गहलोत को जमकर घेरा लेकिन कांग्रेस पार्टी को लेकर कुछ नहीं कहा. अब बात ये भी सामने आ रही है कि, जयपुर में अनशन केवल और केवल पार्टी आलाकमान को अपनी शक्ति दिखाने का एक बहाना था. लेकिन पायलट को मोटिव है वह साफ है कि, सचिन पायलट ने अपने पिता के अधूरे सपने को पूरा करने की ठान ली है.